बेटो वली विदवाह||Munshi preamchand story|| in Hindi || Part - 2||
बैठ गये । दोनों ऐसा मुंह बनाये हुए थे , मानो कोई भारी विपत्ति आ पड़ी है । फूलमती ने सशक होकर पूछा , ' तुम दोनों घबड़ाये हुए मालूम होते हो । ' उमा ने सिर खुजलाते हुए कहा , ' समाचार - पत्रों में लेख लिखना बड़े जोखिम का काम है , अम्माँ ! कितना ही बचकर लिखो , लेकिन कहीं - न - कहीं पकड़ हो ही जाती है । दयानाथ ने एक लेख लिखा था । उस पर पांच हजार की जमानत मांगी गयी है । अगर कल तक जमानत न जमा कर दी गयी , तो गिरफ्तार हो जायेंगे और दस साल की सजा दुक जायेगी । फूलमती ने सिर पीटकर कहा , ' तो ऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा ? जानते नहीं आजकल हमारे दुर्दिन आये हुए हैं । जमानत किसी तरह टल नहीं सकती ? ' दयानाथ ने अपराधी - भाव से उत्तर दिया , ' मैंने तो अम्माँ ! ऐसी कोई बात नहीं लिखी थी , कि लेकिन किस्मत को क्या करू । हाकिम जिला इतना कड़ा है कि ज़रा भी रियात नहीं करता । मैंने जितनी दौड़ - धूप हो सकती थी , वह कर ली । ' तो तुमने कामता से रुपये का प्रबन्ध करने को नहीं कहा ? ' उमा ने मुंह बनाया - उनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम्माँ , उन्हें रुपये प्राणों से प्यारे हैं । इन्हें चाहे काला पानी ही हो जाये , वह एक पाई न देंगे । ' दयानाथ ने समर्थन किया , ' मैंने तो उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया । ' फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहा , ' चलो , मैं कहती हूं , देगा कैसे नहीं ? रुपये इसी दिन के लिये होते हैं कि गाड़कर रखने के लिये ? ' उमानाथ ने माता को रोककर कहा , ' नहीं अम्मा , उनसे कुछ न कहो । रुपये तो न देंगे , उलटे और हाय - हाय मचायेंगे । उनको अपनी नौकरी की खैरियत मनानी है , इन्हें घर में रहने भी न देंगे । अफ़सरों में जाकर खबर दे दे , तो आश्चर्य नहीं । ' फूलमती ने लाचार होकर कहा , ' तो फिर जमानत का क्या प्रबन्ध करोगे ? मेरे पास तो कुछ नहीं है । हाँ मेरे गहने हैं , इन्हें ले जाओ , कहीं गिरवी रखकर जमानत दे दो । और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे । ' दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोला , ' यह तो नहीं हो सकता अम्मा कि तुम्हारे ज़ेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊ । दस - पांच साल की कैद ही तो होगी , झेल लूंगा । या बैठा - बैठा क्या कर रहा हूं । ' फूलमती छाती पीटते हुए बोली , ' केसी बाते मुंह से निकालते हो बेटा । मेरे जीते - जी तुम्हें कौन गिरफ्तार कर सकता है । उसका मुंह झुलस दूंगी । गहने इसी दिन के लिये हैं या और किस दिन के लिये । जब तुम्हीं न रहोगे , तो गहने लेकर क्या आग उसने पिटारी लाकर उसके सामने रख दी । दया ने उमा की ओर जैसे फ़रियाद की आंखों से देखा और बोला , ' आपकी राय है भाई साहब इसी मारे मैं कहता था , अम्मा को जताने की ज़रूरत नहीं । जेल ही तो हो जाती या और कुछ ? ' उमा ने जैसे सिफारिश करते हुए कहा , ' यह कैसे हो सकता था कि इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्माँ को खबर न होती । मुझसे यह नहीं हो सकता था कि सुनकर पेट में डाल लेता , मगर अब करना क्या चाहिए , यह मैं खुद निर्णय नहीं कर सकता । न तो यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही अच्छा लगता है कि अम्मा के गहने गिरवी रखे जायें । ' फूलमती ने व्यथित कण्ठ से पूछा , ' क्या तुम समझते हो , मुझे गहने तुमसे ज्यादा प्यारे है ? मैं तो अपने प्राण तक तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर दूं , गहनों की बिसात ही दया ने दृढ़ता से कहा , ' अम्मा ! तुम्हरे गहने तो न लूंगा , चाहे मुझ पर कुछ ही क्यों न आ पड़े । जब आज तक तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका , तो किस मुंह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊं ? मुझ - जैसे कपूत को भी तुम्हारी कोख से जन्म ही न लेना चाहिए था । सदा तुम्हें कष्ट ही देता रहा । ' फूलमती ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा , ' अगर यो न लोगे , तो मैं खुद जाकर इन्हें गिरवी रख दूंगी और खुद हाकिम जिला के पास जाकर जमानत जमा कर आऊंगी । अगर इच्छा हो , तो यह परीक्षा भी ले लो । आंखें बन्द हो जाने के बाद क्या होगा , भगवान् जानें , लेकिन जब तक जीती हूं , तुम्हारी ओर कोई तिरछी आँखों से नहीं देख सकता । ' उमानाथ ने मानो माता पर एहसान रखकर कहा , ' अब तो तुम्हारे लिये कोई रास्ता न रहा दयानाथा क्या हर्ज है , ले लो , मगर याद रखो , ज्यों ही हाथ में रुपये आ जाये , गहने छुड़ाने पड़ेंगे । सच कहते हैं , मातृत्व दीर्घ तपस्या है । माता के सिवा इतना स्नेह और कौन कर सकता है ? हम बड़े अभागे हैं कि माता के प्रति जितनी श्रद्धा रखनी चाहिए , उसका शतांश भी नहीं रखते । ' दोनों ने जैसे बड़े धर्मसंकट में पड़कर गहनों की पिटारी संभाली और चलते बने । माता वात्सल्य - भरी आँखों से उनकी ओर देख रही थी और उसकी सम्पूर्ण आत्मा का आशीर्वाद जैसे उन्हें अपनी गोद में समेट लेने के लिये व्याकुल हो रहा था । आज कई महीने के बाद उसके भग्न - मातृ - हृदय को अपना सर्वस्व अर्पण करके , जैसे आनन्द की विभूति मिली । उसकी स्वामिनी कल्पना इसी त्याग के लिये , इसी आत्मसमर्पण के लिये , जैसे कोई मार्ग ढूंढती रहती थी । अधिकार या लोभ या ममता की वहाँ गन्ध तक न थी । त्याग ही उसका आनन्द और त्याग ही उसका अधिकार है । आज अपना खोया हुआ अधिकार पाकर अपनी सिरजी हुई प्रतिमा पर अपने प्राणों की भेंट करके बह निहाल हो गयी । तीन महीने और गुज़र गये । मां के गहनों पर हाथ साफ़ करके चारों भाई उसकी दिलजोई करने लगे थे । अपनी स्त्रियों को भी समझाते थे कि उसका दिल न दुखायें । अगर थोड़े से शिष्टाचार से उसकी आत्मा को शान्ति मिलती है , तो इसमें क्या हानि है । चारों करते अपने मन की , पर माता से सलाह से लेते या जाल फैलाते कि वह सरला उनकी बातों में आ जाती और हरेक काम में सहमत हो जाती । बाग को बेचना की मोल कहानियांउसे बहुत बुरा लगता था , लेकिन चारों ने ऐसी माया रची कि वह उसे बेचने पर राजी हो गयी , किन्तु कुमुद के विवाह के विषय में मतैक्य न हो सका । मां पं . मुरारीलाल पर जमी हुई थी , लड़के दीनदयाल पर अड़े हुए यो एक दिन आपस में कलह हो गयी । फूलमती ने कहा , ' मां - बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी है । तुम्हें सोलह हजार का एक बाग मिला , पच्चीस हजार का एक मकान । बीस हजार नकद में , क्या पांच हजार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है । ' कामता ने नम्रता से कहा , ' अम्मा ! कुमुद आपकी लड़की है , तो हमारी बहिन है । आप दो - चार साल में प्रस्थान कर जायेगी , पर हमारा और उसका बहुत दिनों तक सम्बन्ध रहेगा । तब हम यथाशक्ति कोई ऐसी बात न करेंगे , जिससे उसका अमंगल हो , लेकिन हिस्से की बात कहती हो , तो कुमुद का हिस्सा कुछ नहीं । दादा जीवित थे , तब और बात थी । वह उसके विवाह में जितना चाहते , खर्च करते । कोई उनका हाथ न पकड़ सकता था , लेकिन अब तो हमें एक - एक पैसे की किस्मयत करनी पड़ेगी । जो काम एक हजार में हो जाये , उसके लिये पांच हजार खर्च करना कहाँ की बुद्धिमानी है । ' उमानाथ ने सुधारा , ' पांच हजार क्यों , दस हजार कहिये । कामता ने भवें सिकोड़कर कहा , ' नहीं , में पांच हजार ही कहूंगा , एक विवाह में पांच हजार खर्च करने की हमारी हैसियत नहीं है । ' फूलमती ने जिद पकड़कर कहा , ' विवाह तो मुरारीलाल के पुत्र से ही होगा , पांच हजार खर्च हो , चाहे दस हजार । मेरे पति की कमाई है । मैंने मर - मरकर जोड़ा है । अपनी इच्छा से खर्च करूंगी । तुम्हीं ने मेरी कोख से नहीं जन्म लिया , कुमुद भी उसी कोख से आयी है । मेरी आंखों में तुम सब बराबर हो । में किसी से कुछ मांगती नहीं । तुम बैठे तमाशा देखो , मैं सब चुरा कर लूंगी । बीस हजार में पांच हजार कुमुद कामतानाथ को अब कड़वे सत्य की शरण लेने के सिवा और मार्ग न रहा । बोला , ' अम्मा तुम बरबस बात बढ़ाती हो । जिन रुपयों को तुम अपना समझती हो , वह तुम्हारे नहीं है , तुम हमारी अनुमति के बिना उनमें से कुछ नहीं वर्च कर सकती । ' फूलमती को जैसे सर्प ने डस लिया , ' क्या कहा ? फिर तो कहना । मैं अपने ही संबे रुपये अपनी इच्छा से नहीं खर्च कर सकती ? ' ' यह रुपये तुम्हारे नहीं रहे , हमारे हो गये । ' ' तुम्हारे होंगे , लेकिन हमारे मरने के पीछे । ' ' नहीं , दादा के मरते ही हमारे हो गये । ' उमानाथ ने बेहयाई से कहा , ' अम्मा ! कानून - कायदा तो जानती नहीं , नारक डालती है । ' फूलमती क्रोध - विस्त होकर बोली , ' भाड़ में जाये तुम्हारा कानून । मैं ऐसे कानून को नहीं जानती । तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नहीं थे । मैंने ही पेट और तन काटकर यह गृहस्थी जोड़ी है , नहीं आज बैठने की छांह न मिलती । मेरे जीते - जी तुममेरे रुपये नहीं छू सकते । मैंने तीन भाइयों के विवाह में दस - दस हजार खर्च किये हैं । वही में कुमुद के विवाह में भी खर्च करूंगी । कामतानाथ भी गर्म पड़ा , ' आपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है । ' उमानाथ ने बड़े भाई को डांटा , ' आप खामख्वाह अम्मा के मुंह लगते हैं , भाई साहब ! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिये कि तुम्हारे यहां कुमुद का विवाह न होगा । बस , छुट्टी हुई । कायदा - कानून तो जानती नहीं , व्यर्थ ही बहस करती हैं । ' फूलमती ने संयमित स्वर में कहा , ' अच्छा , क्या कानून है , जरा में भी सुनूं । ' उमा ने निरीड भाव से कहा , ' कानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है । मां का हक़ केवल रोटी - कपड़े का है । ' फूलमती ने तड़पकर पूज , ' किसने यह कानून बनाया है ? ' उमा शान्त स्थिर स्वर में बोला , ' हमारे ऋषियों ने , महाराज मनु ने , और किसने ? ' फूलमती एक क्षण अवाक् रहकर आहत कण्ठ से बोली , ' तो इस घर में में तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ ? ' उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा , ' तुम जैसा समझो । ' फूलमती की सम्पूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी । उसके मुख से जलती हुई चिनगारियों की भांति यह शब्द निकल पड़े , ' मैंने घर बनवाया , मैंने सम्पत्ति जोड़ी , मैंने तुम्हें जन्म दिया , पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ ? मनु का यही कानून है और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो ? अच्छी बात है । अपना घर - द्वार लो । मुझे तुम्हारी आश्रिता बनकर रहना स्वीकार नहीं । इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊी वाह रे अन्धेर ! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छांह में खड़ी नहीं हो सकती , अगर यही कानून है , तो इसमें आग लग जाये । चारों युवकों पर माता के इस क्रोध और आतंक का कोई असर न हुआ । कानून का फौलादी कवच उनकी रक्षा कर रहा था । इन कांटों का उन पर क्या असर हो सकता था । ज़रा देर से फूलमती उठकर चली गयी । आज जीवन में पहली बार उसका वात्सल्य - भग्न - भातृत्व अभिशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा । जिस मातृत्व को उसने जीवन की विभूति समझा था , जिसके चरणों पर वह सदैव अपनी समस्त अभिलाषाओं और कामनाओं को अर्पित करके अपने को धन्य मानती थी , वही मातृत्व आज उसे उस अग्निकुण्ड - सा जान पड़ा , जिसमें उसका जीवन जलकर भस्म हो रहा था । सन्ध्या हो गयी थी । द्वार पर नीम का वृक्ष सिर झुकाये निस्तब्ध खड़ा था , मानों संसार की गति पर क्षुब्ध हो रहा हो । अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन का देवता फूलमती के मातृत्व ही की भांति अपनी चिता में जल रहा था । फूलमती अपने कमरे में जाकर लेटी , तो उसे मालूम हुआ , उसकी कमर टूट गयी है । पति के मरते ही अपने पेट के लड़के उसके शत्रु हो जायेंगे ,भी अनुमान न था । जिन लड़को को अपना हृदयरक्त पिला - पिलाकर पाला , वही आज उसके हृदय पर यो आधात कर रहे हैं । अब वह घर उसे कारों की सेज हो रहा था । जहां उसकी कुछ कर नहीं , कुछ गिनती नहीं , वहां अनायों की भांति पड़ी रोटियां खाये , यह उसकी अभिमानी प्रकृति के लिये असह्य था । पर उपाय ही क्या था ? वह लड़को से अलग होकर रहे भी तो नाक किसकी कटेगी । संसार उसे चूके तो क्या , और लड़कों को थूके तो क्या , बदनामी तो उसी की है । दुनिया यही तो कहेगी कि चार जवान बेटों के होते बुढ़िया अलग पड़ी हुई मजूरी करके पेट पाल रही है । जिन्हें उसने हमेशा नीच समझा , वही उस पर हंसेंगे । नहीं , वह अपमान इस अनादर से कहीं ज्यादा हृदय विदारक था । अब अपना और घर का परदा ठका रखने में ही कुशाल है । हां , अब उसे अपने को नयी परिस्थिति के अनुकूल बनाना पड़ेगा । समय बदल गया है । अब तक स्वामिनी बनकर रही , अब लोडी बनकर रहना पड़ेगा । ईश्वर की यही इच्छा है । अपने बेटों की बातें और लाते गैरों की बातों और लातों की अपेक्षा फिर भी गनीमत है । वह बड़ी देर तक मुंह ढांप अपनी दशा पर रोती रही । सारी रात इसी आत्म - वेदना में कट गयी । शरद का प्रभात डरता - डरता ऊषा की गोद से निकला , जैसे कोई बैन्दी छिपकर जेल से भाग आया हो । फूलमती अपने नियम के विरुद्ध आज तड़के ही उठी , रात - भर में उसका मानसिक परिवर्तन हो चुका था । सारा घर सो रहा था और यह आंगन में झाडू लगा रही थी । रात - भर ओस में भीगी हुई पक्की जमीन उसके नंगे पैरों में कांटों की तरह चुभ रही थी । पन्डितजी उसे कभी इतने सवेरे उठने न देते थे । शीत उसके लिये बहुत हानिकारक था । पर अब दिन नहीं रहे । प्रकृति को भी समय के साथ बदल देने का प्रत्यन कर रही थी । झाडू से फुरसत पाकर उसने आग जलायी और चावल - दाल की ककड़ियाँ चुनने लगी । कुछ देर में लड़के जागे । बहुये उठी । सभी ने बुढ़िया को सर्दी से सिकुड़े हुए काम करते देखा , पर किसी ने यह न कहा कि अम्मा , क्यों हल्कान होती हो ? शायद सब के सब बुढ़िया के इस मान - मर्दन पर प्रसन्न । आज से फूलमती का यही नियम हो गया कि जी तोड़कर घर का काम करना और अन्तरंग नीति से अलग रहना । उसके मुख पर जो एक आत्मगौरव झलकता रहता था , उसकी जगह अब गहरी वेदना आयी हुई नज़र आती थी । जहां बिजली जलती थी , वहां अब तेल का दिया टिमटिमा रहा था , जिसे बुझा देने के लिये हया का एक हल्का - सा झोका काफ़ी है । मुरारीलाल को इनकारी पत्र लिखने की बात पक्की हो ही चुकी थी । दूसरे दिन पत्र लिख दिया गया । दीनदयाल से कुमुद का विवाह निश्चित हो गया । दीनदयाल की उम्र चालीस से कुछ अधिक थी , मर्यादा में भी कुछ हेठे थे , पर रोटी - दाल से खुश थे । बिना किसी ठहराव के विवाह करने पर राजी हो गये । तिथि नियत हुई , बारात आयी , विवाह हुआ और कुमुद विदा कर दी गयी । फूलमती के दिल पर क्या गुज़र रही थी , इसे कौन जान सकता है । कुमुद के दिल पर क्या गुज़र रही थी , इसे कौन जान सकता है , पर चारों भाई बहुत प्रसन्न थे , मानो उनके हृदय का घंटा निकल गया हो । ऊंचे कुल की कन्या , गुंत वैसे खोलती ? भाग्य में सुख भोगना लिखा होगा , सुख भोगेगी , दुख भोगन लिखा होगा , दुध मेलेगी । हरि - दचा बेबसों का अन्तिम अवलम्ब है । घरवालों ने जिससे विवाह कर दिया , उसमें हजार ऐब हो , तो भी वह उसका उपास्य , उसका स्वामी है । प्रतिरोध उसकी कल्पना से परे था । फूलमती ने किसी काम में दखल न दिया । कुमुद को क्या दिया गया , मेहमानों या कैसा सचार किया गया , किसके यहां से नेवते में क्या आया , किसी बात से भी उसको सरोकार न था । उससे कोई सलाह भी न ली गयी , तो यही कहा , ' बेटा ! तुम लोग जो करते हो , अच्छा ही करते हो । मुझसे क्या पूछते हो । ' जब कुमुद के लिये द्वार पर डोली आ गयी और कुमुद मां के गले लिपटकर रोने लगी , तो वह बेटी को अपनी कोठरी में से गयी और जो कुछ सौ - पचास रुपये और दो - चार मामूली गहने उसके पास बच रहे थे , बेटी के आंचल में डालकर बोली , ' बेटी ! मेरी तो मन - की - मन में रह गयी , नहीं तो क्या आज तुम्हारा विवाह इस तरह होता और तुम इस तरह विदा की जाती । ' आज तक फूलमती ने अपने गहनों की बात किसी से न कही थी । लड़कों ने उसके साथ जो कपट - व्यवहार किया था , इसे चाहे वह अब तक न समझी हो , लेकिन इतना जानती थी कि गहने फिर न मिलेंगे और मनोमालिन्य बढ़ने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा । लेकिन इस अवसर पर उसे अपनी ससई देने की जरूरत मालूम हुदी कुमुद यह भव मन में लेकर जाये कि अम्मा ने अपने गहने बहुओं के लिये रख छेड़े , इसे वह किसी तरह न सह सकती थी , इसलिये वह अपनी कोठरी में ले गयी थी । लेकिन कुमुद को पहले ही इस कौशल की टोड मिल चुकी थी । उसने गहने और रुपये आंचल से निकालकर माता के घरणों पर रख दिये और बोली , ' अम्मा ! ' मेरे लिये तुम्हारा आशीर्वाद लाखों रुपयों के बराबर है । तुम इन चीजों को अपने पास रखो । न जाने अभी तुम्हें किन विपत्तियों का सामना करना पड़े । ' फूलमती युग कहना ही चाहती थी कि उमानाथ ने आकर कहा , ' क्या कर रही है , कुमुदी चल , जल्दी कर । साइत टली जाती है । वह लोग हाय - हाय कर रहे हैं , फिर तो दो - चार महीने में आयेगी ही , जो कुरा सेना - देना हो , ले लेना । ' फूलमती के घाव पर जैसे मानो नमक पड़ गया । बोली , ' मेरे पास अब क्या है पैया , जे में इसे दूंगी ? जाओ बेटी , भगवान् तुम्हारा सुहाग अमर करें । मुमुद विदा हो गयी । फूलमती पनड़ खाकर गिर पड़ी । जीवन की अन्तिम सलत नष्ट हो गयी । एक साल बीत गया फूलमती व कमरा घर में सब कमरों से बद और हवादार था । कई महीनों से उसने बड़ी बहू के लिये हाली कर दिया था और खुद एक छोटी - सी कोठरी में रहने मगी , जैसे कोई भिधारिन दो बेटो और बहुओं से अब उसे जरा भी स्नेह न था । वहअब घर की लौडी थी । घर के किसी प्राणी , किसी वस्तु , किसी प्रसंग से उसे प्रयोजन उसे लेशमात्र भी शान न था । न था । वह केवल इसीलिये जीती थी कि मौत न आती थी । सुख या दुःख का अब उमानाथ का ओषाघालय खुला , मित्रों की दावत हुई , नाच - तमाशा हुआ । दयानाथ का प्रेस खुला , फिर जलसा हुआ । सीतानाथ को वजीफा मिला और विलायत गया , फिर उत्सव हुआ । कामतानाथ के बड़े लड़के का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ , फिर धूम - धाम हुई , लेकिन फूलमती के मुख पर आनन्द की छाया तक न आयी । कामतानाथ टाइफाइड में महीने - भर बीमार रहा और मरकर उठा । दयानाथ ने अबकी अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के लिये वास्तव में एक आपत्तिजनक लेख लिखा और छ : महीने सजा पायी । उमानाथ ने एक फौजदारी के मामले में रिश्वत लेकर गलत रिपोर्ट लिखी और उसकी सनद छीन ली गयी , पर फूलमती के चेहरे पर रंज की परणाई तक न पड़ी । उसके जीवन में अब कोई आशा , कोई दिलचस्पी , कोई चिन्ता न थी । बस , पशुओं की तरह काम करना और खाना , यही उसकी जिन्दगी के दो काम थे । जानवर मारने से काम करता है , पर खाता है मन से । फूलमती बेकहे काम करती थी , पर खाती थी विष के कौर की तरह । महीनों सिर में तेल न पड़ता , महीनों कपड़े न घुलते , कुछ परवाह नहीं । चेतनाशून्य हो गयी थी । सावन की झड़ी लगी हुई थी । मलेरिया फैल रहा था । आकाश में मटियाले बादल थे , जमीन पर मटियाला पानी । आई वायु शीत - ज्वर और श्वास का वितरण करती फिरती थी । घर की महरी बीमार पड़ गयी । फूलमती ने घर के सारे बर्तन मांजे , पानी में भीग - भीगकर सारा काम किया । फिर आग जलायी और चूल्ले पर पतीलियां चढ़ा दी । लड़कों को समय पर भोजन तो मिलना चाहिए । सहसा उसे याद आया , कामतानाथ नल का पानी नहीं पीते । उसी वर्षा में गंगाजल लाने चली । कामतानाथ ने पलंग पर लेटे - लेटे कहा , ' रहने दो अम्मा , मैं पानी भर लाऊंगा , आज महरी खूब बैठ रही । ' फूलमती ने मटियाले आकाश की ओर देखकर कहा , ' तुम भीग जाओगे बेटा , सर्दी हो जायेगी । ' अमतानाथ बोले , ' तुम भी तो भीग रही हो । कहीं बीमार न पड़ जाओ । ' फूलमती निर्मम भाव से बोली , ' मैं बीमार न पडूंगी । मुझे भगवान ने अमर कर दिया है । ' उमानाथ भी वहीं बैठा हुआ था । उसके ओषधालय में कुछ आमदनी न होती थी , इसलिये बहुत चिन्तित रहता था । भाई - भावज की मुंह देखी करता रहता था । बोला , ' जाने भी दो , भैया ! बहुत दिनों बहुओं पर राज कर चुकी है , उसका प्रायश्चित्त तो करने दो । गंगा बढ़ी हुई थी , जैसे समुद्र हो क्षितिज सामने के कूल से मिला हुआ था । किनारों के वृक्षों की केवल फुनगियां पानी के ऊपर रह गयी थीं । घाट ऊपर तक पानी में डूब गये थे । फूलमती कलसा लिये नीचे उतरी । पानी भरा और ऊपर जा रही थीकि पांव फिसला । संभल न सकी । पानी में गिर पड़ी । पल - भर हाथ - पांव चलाये , फिर सहरे उसे नीचे खींच ले गयीं । किनारे पर दो - चार पंडे चिल्लाये , ' अरे दौड़ो , बुढ़िया डूबी जाती है । ' दो - चार आदमी दौड़े भी , लेकिन फूलमती लहरों में समा गयी थी । उन बल खाती हुई लहरों में , जिन्हें देखकर ही हृदय कांप उठता था । एक ने पूछा , ' यह कौन बुढ़िया थी ? ' अरे , वही पण्डित अयोध्यानाथ की विधवा है । ' ' अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे ? ' ' हाँ थे तो , पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था । ' ' उनके तो कई लड़के बड़े - बड़े हैं और सब कमाते हैं ? ' ' हां , सब है भाई , मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु है । '
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