बेटो वली विदवाह||Munshi preamchand story|| in Hindi || Part - 1||
नियमानुसार ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे । वह प्रत्येक वस्तु को देखती , उसे पसंद करती , उसकी मात्रा में कमी - बेशी का फैसला करती , तब इन चीज़ों को भण्डारे में रखा जाता । क्यों उसे दिखाने और उसकी राय लेने की ज़रूरत नहीं समझी गयी ? अच्छा ! वह आटा तीन ही बोरी क्यों आया ? उसने तो पांच बोरों के लिये कहा था । घी भी पांच ही कनस्तर है , उसने तो दस कनस्तर मंगवाये थे । इसी तरह शाक - भाजी , शक्कर , दही आदि में भी कमी की गयी होगी । किसने उसके हुक्म में हस्तक्षेप किया ? जब उसने एक बात तय कर दी , तब किसे उसको घटाने - बढ़ाने का अधिकार है ? आज चालीस वर्षों से घर के प्रत्येक मामले में फूलमती की बात सर्वमान्य थी । उसने सौ कहा तो सौ खर्च किये गये , एक कहा तो एका किसी ने मीनमेख न की । यहां तक कि पं . अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के विरुद्ध कुछ न करते थे , पर आज उसकी आंखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उसके हुक्म की उपेक्षा की जा रही है , इसे वह क्योंकर स्वीकार कर सकती ? कुछ देर तक तो वह जब्त किये बैठी रही , पर अन्त में न रहा गया । स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो गया था । वह क्रोध में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोली , ' क्या आटा तीन ही बोरे लाये ? मैने तो पांच बोरों के लिये कहा था और घी भी पांच ही टिन मंगवाया । तुम्हें याद है , मैंने दस कनस्तर कहा था । किफायत को मे बुरा नहीं समझती , लेकिन जिसने यह कुआँ खोदा , उसकी ही आत्मा पानी को तरसे , यह कितनी लज्जा की बात है । ' कामतानाथ ने क्षमा याचना न की , अपनी भूल भी स्वीकार न की , लज्जित भी नहीं हुआ । एक मिनट तो विद्रोही भाव से खड़ा रहा , फिर बोला , ' हम लोगों की सलाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिये पांच दिन घी काफ़ी था । इसी हिसाब से और चीज़े भी कम कर दी गयी है । ' फूलमती उग्र होकर बोली , ' किसकी राय से आटा कम किया गया ? ' ' हम लोगों की राय से । ' ' तो मेरी राय कोई चीज़ नहीं है ? ' है क्यों नहीं , लेकिन अपना लाभ - हानि तो हम भी समझते हैं । ' फूलमती हक्का - बक्का होकर उसस्त्र मुंह ताकने लगी । इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया । अपना लाभ - हानि ! अपने घर में लाभ - हानि की ज़िम्मेदार वह आप है । दूसरों को , चाहे वे उसके पेट के जन्में पुत्र ही क्यों न हो , उसके कामों में हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है ? यह लौडा तो इस ढिठाई से जवाब दे रहा है , मानो घर उसी का है , उसी ने मर - मरकर गृहस्थी जोड़ी है , मैं तो गैर हूं । जरा इसकी हेकड़ी तो देखो । उसने तमतमाये हुए मुख से कहा , ' मेरे लाभ - हानि के जिम्मेदार तुम नहीं हो । मुझे अख्तियार है जो उचित समझे , वह कस । अभी जाकर दो बोरे आटा और पांच टिन धी और लाओ और आगे के लिये खबरदार , जो किसी ने मेरी बात काटी । 'अपने विचार से उसने काफ़ी तम्बीह कर दी थी । शायद इतनी कठोरता अनावश्यक थी । उसे अपनी उग्रता पर खेद हुआ । लड़के ही तो है , समझे होंगे कुछ किायत करनी चाहिए । मुझसे इसलिये न पूछा होगा कि अम्मा तो खुद हरेक काम में विकायत करती है । अगर इन्हें मालूम होता कि इस काम में मैं किफायत पसंद न करूंगी , तो कभी इन्हें मेरी उपेक्षा करने का साहस न होता । यद्यपि कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और उसकी भाव - भंगिमा से ऐसा ज्ञात होता था कि इस आज्ञा का पालन करने के लिये वह बहुत उत्सुक नहीं , पर फूलमती निश्चिंत होकर अपनी कोठरी में चली गयी । इतनी तम्बीह पर भी किसी को अवज्ञा करने की सामर्थ्य हो सकती है , इसकी सम्भावना का ध्यान भी उसे न आया । पर ज्यों - ज्यों समय बीतने लगा , उस पर यह हकीकत खुलने लगी कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही जो दस - बारह दिन पहले थी । सम्बन्धियों के यहां से नेवते में शक्कर , मिठाई , दही , अचार आदि आ रहे थे । बड़ी बहू इन वस्तुओं को स्वामिनी - भाव से संभाल - संभालकर रख रही थी । कोई भी उससे पूछने नहीं आता । बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते है , कामतानाथ से या बड़ी बहू से । कामतानाथ कहां का बड़ा इन्तजामकार है , रात - दिन भंग पिये पड़ा रहता है । किसी तरह रो - धोकर दफ्तर जाता है । उसमें भी महीने में पंद्रह नागाओं से कम नहीं होते । वह तो कहीं साहब पण्डितजी का लिहाज़ करता है , नहीं तो अब तक कभी या निकाल देता और बड़ी बहू - जैसी फूहड़ औरत भला इन बातों को क्या समझेगी । अपने कपड़े - लत्ते तक तो जतन से रख नहीं सकती , चली है गृहस्थी चलाने । भद होगी , और क्या । सब मिलकर कुल की नाक कटवायेंगे । वक़्त पर कोई - न - कोई चीज़ कम हो जायेगी । इन कामों के लिये बड़ा अनुभव चाहिए । कोई चीज़ तो इतनी बन जायेगी कि मारी - मारी फिरेगी । कोई चीज़ इतनी कम बनेगी कि किसी पत्तल पर पहुंचेगी किसी पर नहीं । आखिर इन सबों को हो क्या गया है । अच्छ , बहू तिजोरी क्यों खोल रही है ? यह मेरी आता के बिना तिजोरी खोलनेवाली यौन होती है ? कुंजी उसके पास है अवश्य , लेकिन जब तक मैं रुपये न निकलवाऊ , तिजोरी नहीं खुलती । आज तो इस तरह खोल रही है , मानो में कुछ हूं ही नहीं । यह मुझसे न बर्दाश्त होगा । यह झमककर उठी और बड़ी बहू के पास कठोर स्वर में बोली , ' तिजोरी क्यों खोलती हो बह , मैने तो खोलने को नहीं कहा ? ' बड़ी बहू ने निस्संकोच भाव से उत्तर दिया , ' बाज़ार से सामान आया है , तो दाम न दिया जायेगा ? ' कौन - सी चीज़ किस भाव से आयी है , और कितनी आयी है , यह मुझे कुछ नहीं मालूम । जब तक हिसाब - किताब न हो जाये , रुपये कैसे दिये जायेंगे ? ' ' हिसाब - किताब सब हो गया है । ' ' किसने किया ? ' अब मैं क्या जानें किसने किया ? जाकर मरदों से पूछ । मुझे हुक्म मिला , रुपये लाकर दे दो , रुपये लिये जाती हूं । पूलमती धून पाट पीकर रह गयी । इस बात बिगड़ने का अवसर न था । दर में मेहमान स्त्री - पुरुष भरे हुए थे । अगर इस बात उसने सहयों को डांटा , तो मोग यही कहेंगे कि इनके घर में पण्डितजी के मरते ही फूट पड़ गयी । दिल पर पत्थर रखकर फिर अपनी कोठरी में चली आयी । जब मेहमान विदा हो जायेंगे , तब बढ़ एक - एक की खबर सेगी । तब देखेगी , कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है । इनकी सारी चौकड़ी भुला देगी । किन्तु पोठरी के एकान्त में भी वह निश्चित न बैठी थी । सारी परिस्थिति को गिद्ध दृष्टि से देख रही थी , कहा सत्कार का कौन - सा नियम भंग होता है , कहाँ मर्यादाओं की उपेक्षा की जाती है । भोज आरम्भ हो गया । सारी बिरादरी एक साथ पंगत में बैठा दी गयी । आंगन में मुश्किल से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं । ये पांच सौ आदमी इतनी - सी जगह में कैसे बैठ जायेंगे ? क्या आदमी के ऊपर आदमी बैठाये जायेंगे ? दो पंगतों में लोग बैठाये जाते , तो क्या बुराई हो जाती ? यही तो होता कि बारह बजे की जगह भोज दो बजे समाप्त होता , मगर यहां तो सबको सोने की जल्दी पड़ी हुई है । किसी तरह यह बला सिर से टले और चैन से सोये । लोग कितने सटकर बैठे हुए हैं कि किसी को हिलने की भी जगह नहीं । पत्तल एक पर एक रखे हुए हैं । पूरियां ठण्डी हो गयीं । लोग गरम - गरम मांग रहे हैं । मैदे की पूरियाँ ठण्डी होकर चिमट्टी हो जाती हैं । इन्हें कौन खायेगा ? रसोइये को कढ़ाव पर से न जाने क्यों उठा दिया गया ? यही सब बाते नाक काटने की है । सहसा शोर मचा , तरकारियों में नमक नहीं । बड़ी बहू जल्दी - जल्दी नमक पीसने लगी । फूलमती क्रोध के मारे ओंठ चबा रही थी , पर इस अवसर पर मुंह न खोल सकती थी । नमक पिसा और पत्तलों पर डाला गया । इतने में फिर शोर मचा , ' पानी गरम है , ठण्डा पानी लाओ । ठण्डे पानी का कोई प्रबन्ध न था , बर्फ भी न मंगाई गयी । आदमी बाज़ार दौड़ाया गया , मगर बाजार में इतनी रात गये बर्फ कां ? आदमी खाली हाथ लौट आया । मेहमानों को वही नल का गरम पानी पीना पड़ा । फूलमती का बस चलता , तो लड़कों का मुंह नोच लेती । ऐसी छीछालेदर उसके घर में कभी न हुई थी । उस पर सब मालिक बनने के लिये मरते है । बर्फ जैसी जरूरी चीज मंगवाने की भी किसी को सुध न थी । सुध कहां से रहे ? जब किसी को गप लड़ाने से फुर्सत मिले । मेहमान अपने दिल में क्या कहेंगे कि चले हैं बिरादरी को भोज देने और घर में बर्फ अच्छा , फिर यह हलबल क्यों मच गयी । अरे , लोग पंगत से उठे जा रहे हैं । क्या मामला है ? फूलमती उदासीन न रह सकी । कोठरी से निकलकर बरामदे में आयी और कामतानाथ से पूछा , ' क्या बात हो गयी सल्ला ? लोग उठे क्यों जा रहे हैं ? कामता ने कोई जवाब न दिया । वहां से खिसक गया । फूलमती झुंझलाकर रह गयी । सहसा कहारिन मिल गयी । फूलमती ने उससे भी वह प्रश्न किया । मालूम हुआ , किसी के शोरबे में मरी हुई चूतिया निकल आयी । फूलमती चित्रलिखित - सी वहीं खड़ी रह गयी ।उबाल उठा कि दीवार से सिर टकरा ले । अभागे भोज का प्रबन्ध करने चले थे । इस फूहड़पन की कोई हद है , कितने आदमियों का धर्म सत्यानाश हो गया । फिर पर्गत क्यों न उठ जाये ? आंखों से देखकर अपना धर्म कौन गंवायेगा ? हो , सारा क्रिया - धरा मिट्टी में मिल गया । सैकड़ों रुपये पर पानी फिर गया । बदनामी हुई , वह अलग । मेहमान उठ चुके यो पत्तलों पर खाना ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था । चारों सड़के आंगन में लज्जित खड़े थे । एक - दूसरे को इल्जाम दे रहे थे । बड़ी बहू अपनी देवरानी पर विगढ़ रही थी । देवरानियां सारा दोष कुमुद के सिर डालती थी । कुमुद खड़ी रो रही थी । उसी वक्त फूलमती मल्लायी हुई आकर बोली , ' मुंड पर कालिख लगी कि नहीं या अभी कुछ कसर बाकी है ? डूब मरो सब के सब जाकर चूल्लू - भर पानी में ? शहर में कहीं मुंह दिखाने लायक भी नहीं रहे । ' किसी लड़के ने जवाब न दिया । फूलमती और भी प्रचण्ड होकर बोली , ' तुम लोगों को क्या ? किसी को शर्म - हया तो है नहीं । आत्मा तो उनकी रो रही है , जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी पर की मरजाद बनाने में खराब कर दी । उनकी पवित्र आत्मा को तुमने यो कलंकित किया । शहर में धुड़ी - थुड़ी हो रही है । अब कोई तुम्हारे द्वार पर पेशाब करने भी आयेगा नहीं । ' कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप सुनता रहा । आखिर झुंझलाकर बोला , ' अच्छ , अब चुप रहो अम्माँ । भूल हुई , हम सब मानते है , बड़ी भयंकर भूल हुई , लेकिन अब क्या उसके लिये घर के प्राणियों को हलाल कर डालोगी ? सभी से भूले होती है । आदमी पछताकर रह जाता है । किसी की जान तो नहीं मारी जाती ? ' बड़ी बहू ने अपनी सफ़ाई दी , ' हम क्या जानते थे कि बीबी से इतना - सा काम भी न होगा । इन्हें चाहिए था कि देखकर तरकारी कढ़ाव में डालती , टोकरी उठाकर कड़ाव में डाल दी । हमारा क्या दोषा ' कामतानाथ ने पत्नी को डांटा , ' इसमें न कुमुद का कुसूर है , न तुम्हारा , न मेरा । संयोग की बात है । बदनामी भाग में लिखी थी , वह हुई । इतने बड़े भोज में एक - एक मुद्री तरकारी कढ़ाव में नहीं डाली जाती । टोकरे - को - टोकरे उड़ेल दिये जाते हैं । कभी - कभी ऐसी दुर्घटना होती है , पर इसमें कैसी जग - हंसाई और कैसी नक - कटाई । तुम ज्वामख्वाह जले पर नमक छिड़कती हो । ' फूलमती ने दांत पीसकर कहा , ' शरमाते तो नहीं , उलटे और बेहयाई की बातें करते हो । ' कामतानाथ ने निःसंकोच होकर कहा , ' शरमाऊँ क्यों , किसी को चोरी की है ? चीनी में चींटे और आटे में धुन , यह नहीं देखे जाते । पहले हमारी निगाह न पड़ी , बस यहीं बात बिगड़ गयी । कही , चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते । किसी को खबर भी न होती । ' धर्म बिगाड़ देता ? " फूलमती ने चकित होकर कहा , ' क्या कहता है , मरी चुहिया खिलाकर सबका कामता हंसकर बोला , ' क्या पुराने जमाने की बाते करती हो अम्मा ? इन बातोंसे धर्म नहीं जाता ? यह धर्मात्मा लोग , जो पत्तल पर से उठ गये हैं , इनमें ऐसा कौन है , जो भेड़ - बकरी का मांस न खाता हो ? तालाब के कछुए और घोंचे तक तो किसी से बचते नहीं । जरा - सी चुहिया में क्या रखा था ? " फूलमती को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब प्रलय आने में बहुत देर नहीं है । जब पढ़े - लिखे आदमियों के मन में ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे , तो फिर धर्म की भगवान् ही रक्षा करें । अपना - सा मुंह लेकर चली गयी । दो महीने गुज़र गये हैं । रात का समय है । चारों भाई दिन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप - शप कर रहे हैं । बड़ी बहू भी षड्यंत्र में शरीक है । कुमुद के विवाह का प्रश्न छिड़ा हुआ है । कामतानाथ ने मसनद पर टेक लगाते हुए कहा , ' दादा की बात दादा के साथ गयी । मुरारी पण्डित विद्वान् भी है और कुलीन भी होंगे । लेकिन जो आदमी अपनी विद्या और कुलीनता को रुपयों पर बेचे , वह नीच है । ऐसे नीच आदमी के लड़के से हम कुमुद का विवाह सेंते में भी न करेंगे , पांच हजार तो दूर की बात है । उसे बताओ घता और किसी दूसरे वर की तलाश करो । हमारे पास कुल बीस हजार ही तो हैं , एक - एक हिस्से में पांच - पांच हजार आते हैं । पांच हजार में दे दे , और पांच हजार नेग न्योछावर , बाजे - गाजे में उड़ा दे , तो फिर हमारी बधिया ही बैठ जायेगी । उमानाथ बोले , ' मुझे अपना ओषधालय खोलने के लिये कम - से - कम पांच हजार की ज़रूरत है । मैं अपने हिस्से में से एक पाई भी नहीं दे सकता , फिर खुलते ही आमदनी तो होगी नहीं । कम - से - कम साल भर घर से खाना पड़ेगा । ' दयानाथ एक समाचार - पत्र देख रहे थे । आंखों से ऐनक उतारते हुए बोले , ' मेरा विचार भी एक पत्र निकालने का है । प्रेस और पत्र के लिये कम - से - कम दस हजार का कैपिटल चाहिए । पांच हज़ार मेरे रहेंगे , तो कोई - न - कोई साझेदार मिल जायेगा । पत्रों में लेख लिखकर मेरा निबाह नहीं हो सकता । ' कामतानाथ ने सिर हिलाते हुए कहा , ' अजी , राम भजो , सेत में कोई लेख छपता नहीं , रुपये कौन देता है । ' दयानाथ ने प्रतिवाद किया , ' नहीं , यह बात तो नहीं है । मैं तो कहीं भी बिना पेशगी पुरस्कार लिये नहीं लिखता । ' कामता ने जैसे अपने शब्द वापस लिये , ' तुम्हारी बात मैं नहीं कहता भाई । तुम तो थोड़ा - बहुत मार लेते हो , लेकिन सबको तो नहीं मिलता । ' बड़ी बहू ने श्रद्धा भाव से कहा , ' कन्या भाग्यवान् हो , तो दरिद्र घर में भी सुखी रह सकती है । अभागी हो , तो राजा के घर में भी रोयेगी । यह सब नसीबों का खेल कामतानाथ ने स्त्री की ओर प्रशंसा - भाव से देखा , " फिर इसी साल हमें सीता का विवाह भी तो करना है । ' सीतानाथ सबसे छोटा था । सिर झुकाये भाइयों की स्वार्थ - भरी बाते सुन - सुनकर कुछ कहने के लिये उतावला हो रहा था । अपना नाम सुनते ही बोला , ' मेरे विवाह की आप लोग चिन्ता न करें । मैं जब तक किसी धन्धे में न लग जाऊंगा , विवाह का नाम भी न लूंगा और सच पूछिये , तो में विवाह करना ही नहीं चाहता । देश को इस समय बालकों की जरूरत नहीं , काम करने वालों की ज़रूरत है । मेरे हिस्से के रुपये आप कुमुद के विवाह में खर्च कर दे । सारी बातें तय हो जाने के बाद यह उचित नहीं है , पण्डित मुरारीलाल से सम्बन्ध में तोड़ लिया जाये । उमा ने तीव्र स्वर में कहा , ' दस हज़ार कहां से आयेंगे ? ' सीता ने डरते हुए कहा , ' मैं तो अपने हिस्से के रुपये देने को कहता हूँ । ' और शेष ? ' ' मुरारीलाल से कहा जाये कि दहेज में कुछ कमी कर दे । वह इतने स्वार्थान्य नहीं है कि इस अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न हो जाये । अगर वह तीन हजार में सन्तुष्ट हो जाये , तो पांच हजार में विवाह हो सकता है । उमा ने कामतानाथ से कहा , ' सुनते हैं भाई साहब , इसकी बात । ' दयानाथ बोल उठे , ' तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान है ? यह अपने रुपये दे रहे हैं , अर्थ कीजिए । मुरारी पण्डित से हमारा कोई और नहीं है । मुझे तो इस बात से खुशी हो रही है कि भला हममें कोई तो त्याग करने योग्य है । इन्हें तत्काल रुपये की जरूरत नहीं है । सरकार से वजीफा पाते ही है । पास होने पर कहीं - न - कहीं जगह मिल जायेगी । हम लोगों की हालत तो ऐसी नहीं है । ' कामतानाथ ने दूरदर्शिता का परिचय दिया , ' नुकसान की एक ही कही । हममें से एक को काट हो , तो क्या और लोग बैठे देखेंगे ? यह अभी लड़के है , इन्हें क्या मालूम , समय पर एक रुपया एक लाख का काम करता है । कौन जानता है , कल इन्हें विलायत जाकर पढ़ने के लिये सरकारी बजीफा मिल जाये या सिविल सर्विस में आ जाये । उस वक़्त सफ़र की तैयारियों में चार - पांच हजार लग जायेंगे । तब किसके सामने हाथ फैलाते फिरेंगे ? मैं यह नहीं चाहता कि दहेज के पीछे इनकी जिन्दगी नष्ट हो जाये । ' इस तर्क ने सीतानाथ को भी तोड़ दिया । सकुचाता हुआ बोला , ' हो , यदि ऐसा हुआ , तो बेशक मुझे रुपये की जरूरत होगी । ' ' क्या ऐसा होना असम्भव है ? ' ' असम्भव तो मैं नहीं समझता , लेकिन कठिन अवश्य है । वज़ीफ़े उन्हें मिलते हैं , जिनके पास सिफारिशें होती है , मुझे कौन पूछता है । ' ' कभी - कभी सिफारिशे धरी रह जाती है और बिना सिफारिश वाले बाजी मार से जाते है । ' तो आप जैसा उचित समझे । मुझे यहां तक मंजूर है कि चाहे मैं विलायत न जाऊ , पर कुमुद अच्छे घर जाये । ' कामतानाथ ने निष्ठा - भाव से कहा , ' अच्छा घर दहेज देने ही से नहीं मिलता , भैया ! जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा , यह नसीबों का खेल है । मैं तो चाहता हूं कि मुरारी लाल को जवाब दे दिया जाये और कोई ऐसा घर खोजा जाये , जो थोड़े में राजी हो जाये । इस विवाह में मैं एक हजार से ज्यादा नहीं खर्च कर सकता । पण्डित दीनदयाल कैसे है ? उमा ने प्रसन्न होकर कहा , ' बहुत अच्छे । एम . ए . , बी . ए . न सही , यजमानों से अच्छी आमदनी है । ' दयानाथ ने आपत्ति की , ' अम्मा से भी तो पूछ लेना चाहिए । ' कामतानाथ को इसकी जरूरत न मालूम हुई । बोले , ' उनकी तो जैसे बुद्धि ही प्रष्ट हो गयी । यही पुराने युग की बातें , मुरारीलाल के नाम पर उधार खाये बैठी हैं । यह नहीं समझती कि वह जमाना नहीं रहा । उनको तो बस , कुमुद मुरारी पण्डित के घर जाये , चाहे हम लोग तबाह हो जाये । ' उमा ने एक शंका उपस्थित की , ' अम्मा अपने सब गहने कुमुद को दे देगी , देख लीजियेगा । ' कामतानाथ स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका । बोले , ' गहनों पर उनका पूरा अधिकार है । यह उनका स्त्रीधन है । जिसे चाहें , दे सकती है । ' उमा ने कप , ' स्त्रीयन है , तो क्या वह उसे सुटा देगी । आखिर वह भी तो दादा ही की कमाई है । " किसी की कमाई हो । स्त्रीधन पर उनका पूरा अधिकार है ! ' ' यह कानूनी गोरख धन्ये है । बीस हज़ार में तो चार हिस्सेदार हो और दस हजार के गहने अम्मा के पास रह जाये । देख लेना , इन्हीं के बल पर यह कुमुद का विवाह मुरारी पण्डित के घर करेंगी । ' उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकता । वह कपट - नीति में कुशल है । कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा । उस वक्त तक कुमुद के विवाह की चर्चा करके फूलमती को भड़काना उचित नहीं । कामतानाथ ने सिर हिलाकर कहा , ' भई ! मैं इन चालों को पसंद नहीं करता । ' उमानाथ ने खिसियाकर कहा , ' गहने दस हजार से कम न होंगे । कामतानाथ अविचलित स्वर में बोले , " कितने ही के हो , में अनीति में हाथ नहीं डालना चाहता । ' ' तो आप अलग बैठिये । हाँ , बीच में भांजी न मारियेगा । ' ' मैं अलग रहूंगा । ' ' और तुम सीता ? ' ' अलग रहूंगा । ' लेकिन जब दयानाथ से यही प्रश्न किया गया , तो वह उमानाथ से सहयोग करने को तैयार हो गया । दस हजार में ढाई हजार तो उसके होंगे ही । इतनी बड़ी रकम के लिये यदि कुछ कौशल भी करना पड़े , तो शम्य है । फूलमती रात को भोजन करके लेटी थी कि उमा और दया उसके पास जाकर...........................
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