Ghar Jamai in Hindi ||Munshi premchand||story
|| GHAR JAMAI ||
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हरिथन जेठ की दुपहरी में ऊख में पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा । घर में से धुआं उठता नज़र आता था । छन - छन की आवाज़ भी आ रही थी । उसके दोनों साले उसके बाद आये और घर में चले गये । दोनों सालों के लड़के भी आये और उसी तरह अन्दर दाखिल हो गये , पर हरिधन अन्दर न जा सका । इथर एक महीने से उसके साथ यहां जो बरताव हो रहा था और विशेषकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी , वह उसके पांव में बेड़ियां - सी डाले हुए था । कल उसकी सास ही ने तो कहा था , मेरा जी तुमसे भर गया , मैं तुम्हारी जिन्दगी भर का ठेका लिये बैठी हूं क्या ? और सबसे बढ़कर अपनी स्त्री की निष्ठुरता ने उसके हृदय के टुकड़े कर दिये थे । वह बैठी यह फटकार सुनती रही , पर एक बार भी तो उसके मुंह से न निकला , अम्मां ! तुम क्यों इनका अपमान कर रही हो ? बैठी गट - गट सुनती रही । शायद मेरी दुर्गति पर खुश हो रही थी । इस घर में वह कैसे जाये ? क्या फिर वही गालियां खाने , वही फटकार सुनने के लिये ? और आज इस घर में जीवन के दस साल गुजर जाने पर यह हाल हो रहा है । मैं किसी से कम काम करता हूँ ? दोनों साले मीठी नींद सोते रहते हैं और में बैलों को सानी - पानी देता हूं , छांटी काटता हूं । वहां सब लो पल - पल पर चिलम पीते हैं , मैं आंखे बंद किये अपने काम में लगा रहता हूं । सन्ध्या समय घरवाले गाने बजाने चले जाते हैं । मैं घड़ी रात तक गाय - भैंसे दुहता हूं । उसका यह पुरस्कार मिल रहा है कि कोई खाने को भी नहीं पूछता । उलटे और गालियां मिलती हैं । उसकी स्त्री घर में से डोल लेकर निकली और बोली , ' जरा इसे कुएं से खींच लो , एक बूंद पानी नहीं है ।
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' हरिधन ने डोल लिया और कुएं से पानी भर लाया । उसे जोर की भूख लगी हुई थी । समझा , अब खाने को बुलाने आयेगी , मगर स्त्री डोल लेकर अन्दर गयी , तो वहीं की हो रही । हरिधन थका - मांदा , क्षुधा से व्याकुल पड़ा सो रहा ।सहसा उसकी स्त्री गुमानी ने आकर उसे जगाया । हरिधन ने पड़े - पड़े ही कहा , ' क्या है ? क्या पड़ा भी न रहने देगी या और पानी चाहिए ? ' गुमानी कटु स्वर में बोली , ' गुरति क्यों हो , खाने को बुलाने आयी हूं । ' हरिधन ने देखा , उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनों लड़के भोजन किये चले जा रहे थे । उसकी देह में आग लग गयी । मेरी अब यह नौबत पहुंच गयी कि इन लोगों के साथ बैठकर खा भी नहीं सकता । ये लोग मालिक हैं । मैं इनकी जूठी थाली चाटने वाला हूं । मैं इनका कुत्ता हूं , जिसे खाने के बाद टुकड़ा रोटी डाल दी जाती है । यही घर है , जहां आज के दस साल पहले उसका कितना आदर - सत्कार होता था । साले गुलाम बने रहते थे । सास मुंह जोहती रहती थी । स्त्री पूजा करती थी । तब उसके पास रुपये थे , जायदाद थी । अब वह दरिद्र है । उसकी सारी जायदाद को इन्हीं लोगों ने कूड़ा कर दिया । अब उसे रोटियों के भी लाले हैं । उसके जी में एक ज्वाला - सी उठी कि इसी वक्त अन्दर जाकर सास को और साली को भिगो - भिगोकर लगाये , पर जब्त करके रह गया । पड़े - पड़े बोला , ' मुझे भूख नहीं है । आज न खाऊंगा । ' गुमानी ने कहा , ' न खाओगे मेरी बला से , हां नहीं तो । खाओगे , तुम्हारे ही पेट में जायेगा , कुछ मेरे पेट में थोड़े ही चला जायेगा । ' हरिधन का क्रोथ आंसू बन गया । यह मेरी स्त्री है , जिसके लिये मैंने अपना सर्वस्व मिट्टी में मिला दिया । मुझे उल्लू बनाकर यह सब अब निकाल देना चाहते हैं । वह अब कहां जाये ! क्या करें । उसकी सास आकर बोली , ' चलकर खा क्यों नहीं लेते जी , रूठते किस पर हो । यहां तुम्हारे नखरे सहने का किसी में बूता नहीं है । जो देते हो , वह मत देना और क्या करोगे । तुमसे बेटी व्याही है , कोई तुम्हारी जिन्दगी का ठेका नहीं लिया है । ' हरिधन ने मर्माहत होकर कहा , ' हां , अम्माँ ! मेरी भूल थी कि मैं यही समझ रहा था । अब मेरे पास क्या है कि तुम मेरी ज़िन्दगी का ठेका लोगी ? जब मेरे पास धन था , तब सब कुछ आता था । अब दरिद्र हूं , तुम क्यों बात पूछोगी ? ' बूढी सास भी मुंह फुलाकर भीतर चली गयी । बच्चों के लिये बाप एक फ़ालतू - सी चीज़ , ' एक विलास की वस्तु , है , जैसे घोड़े के लिये चने या बाबुओं के लिये मोहनभोग । रोटी - दाल , मोहनभोग उम्र - भर न मिले , तो किसका नुकसान है , मगर एक दिन रोटी - दाल के दर्शन न हों , तो फिर देखिये , क्या हाल होता है । पिता के दर्शन कभी - कभी शाम सवेरे हो जाते हैं , वह बच्चे को उछालता है , दुलारता है , कभी गोद में लेकर या उंगली पकड़कर सैर कराने ले जाता है और बस , यही उसके कर्तव्य की इति है । वह परदेश चला जाये , बच्चे को परवा नहीं होती , लेकिन मां तो बच्चे का सर्वस्व है । बालक एक मिनट के लिये भी उसका वियोग नहीं सह सकता ।
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पिता कोई हो , उसे परवा नहीं , केवल एक उछालने - कुदाने वाला आदमी होना चाहिए , लेकिन माता तो अपनी ही होनी चाहिए , सोलहों - आने अपनी । वही रूप , वहीं रंग , वही प्यार , वही सब कुछ । वह अगर नहीं है , तो बालक के जीवन का स्रोत मानो सूख जाता है , फिर वह शिवा का नन्दी है , जिस पर फूल या जल चढ़ाना लाज़िमी नहीं , अख्तियारी है । हरिधन की माता का आज दस साल हुए , देहान्त हो गया था । उस वक्त उसका विवाह हो चुका था । वह सोलह साल का कुमार था । पर मां के मरते ही उसे मालूम हुआ कि मैं कितना निस्सहाय हूं । जैसे उस घर पर उसका कोई अधिकार ही न रहा हो । बहनों के विवाह हो चुके थे । भाई कोई दूसरा न था । बेचारा अकेले घर में जाते भी डरता था । मां के लिये रोता था , पर मां की परछाई से डरता था । जिस कोठरी में उसने देह - त्याग किया था , उधर वह आंखें तक न उठाता । घर में एक बुआ थी , वह हरिधन को बहुत दुलार करती । हरिधन को अब दूध ज्यादा मिलता , काम भी कम करना पड़ता । बुआ बार - बार पूछती , ' बेटा ! कुछ खाओगे ? बाघ भी अब से उसे ज़्यादा प्यार करता । उसके लिये अलग एक गाय मंगवा दी । कभी - कभी उसे कुछ पैसे देते कि जैसे चाहे खर्च करे । पर इन मरहमों से वह घाव न पूरा होता था , जिसने उसकी आत्मा को आहत कर दिया था । वह दुलार और प्यार उसे बार - बार मां की याद दिलाता । मां की घुड़कियों में जो मज़ा था , वह क्या इस दुलार में था ? मां से मांगकर , लड़कर , ठुनककर , रूठकर लेने में जो आनन्द था , वह क्या इस भिक्षादान में था ? पहले वह स्वस्थ था , मांग - मांगकर खाता था , लड़ - लड़कर खाता , अब वह बीमार था , अच्छे - से - अच्छे पदार्थ उसे दिये जाते थे , पर भूख न थी । साल भर तक वह इस दशा में रहा । फिर दुनिया बदल गयी । एक नई स्त्री , जिसे लोग उसकी माता कहते थे , उसके घर में आयी और देखते - देखते एक काली घटा की तरह उसके संकुचित भूमण्डल पर छा गयी , ' सारी हरियाली , सारे प्रकाश पर अन्धकार का परदा पड़ गया । हरिधन ने इस नकली मां से बात तक न की , कभी उसके पास गया तक नहीं । एक दिन घर से निकला और ससुराल चला आया । बाप ने बार - बार बुलाया , पर उनके जीते - जी वह फिर उस घर में न गया । जिस दिन उसके पिता के देहांत की सूचना मिली , उसे एक प्रकार का ईर्ष्यामय हर्ष हुआ । उसकी आंखों में आंसू की एक बूंद भी न आयी । इस नये संसार में आकर हरिधन को एक बार फिर मातृ - स्नेह का आनन्द मिला । उसकी सास ने ऋषि - वरदान की भांति उसके शून्य जीवन को विभूतियों से परिपूर्ण कर दिया । मरुभूमि में हरियाली उत्पन्न हो गयी । सालियों की चुहल में , सास के स्नेह में , सालों के वाक् - विलास में और स्त्री के प्रेम में उसके जीवन की सारी आकांक्षायें पूरी हो गयी । सास कहती , ' बेटा ! तुम इस घर को अपना ही समझो , तुम्ही मेरी आंखों के तारे हो । वह उससे अपने लड़कों की , बहुओं की शिकायत करती । वह दिल में समझता था , सासजी मुझे अपने बेटों से भी ज़्यादा चाहती हैं । बाप के मरते ही वह घर गया और अपने हिस्से की जायदाद को करके रुपयों की थैली लिये फिर आ गया । अब उसका दूना आदर - सत्कार होने लगा । उसने अपनी सारी सम्पत्ति सास के चरणों में अर्पण करके अपने जीवन को सार्थक कर दिया । अब तक उसे कभी - कभी घर की याद आ जाती थी , अब भूलकर भी उसकीयाद न आती , मानो वह उसके जीवन का कोई भीषण काण्ड था , जिसे भूल जाना ही उसके लिये अच्छा था । वह सबसे पहले उठता , सबसे ज्यादा काम करता । उसका मनोयोग , उसका परिश्रम देखकर गांव के लोग दाँतों उंगली दबाते थे । उसके ससुर का भाग्य बखानते , जिसे ऐसा दामाद मिल गया । लेकिन ज्यों - ज्यों दिन गुजरते गये , उसका मान - सम्मान घटता गया । पहले देवता था , फिर घर का आदमी , अन्त में घर का दास हो गया । रोटियों में भी बाधा पड़ गयी , अपमान होने लगा । अगर घर के लोग भूखों मरते और साथ ही उसे भी मरना पड़ता , तो उसे जरा भी शिकायत न होती । लेकिन जब वह देखता कि लोग मूछों पर ताव दे रहे हैं , केवल मैं ही दूध की मक्खी बना दिया गया हूं , तो उसके अन्तःस्तल से एक लम्बी , ठण्डी आह निकल जाती । अभी उसकी उम्र कुल पच्चीस ही साल की तो थी । इतनी उम्र इस घर में कैसे गुजरेगी ? और तो और , उसकी स्त्री ने भी आंखें फेर लीं , यह उस विपत्ति का सबसे क्रूर दृश्य था । हरिधन तो उधर भूखा - प्यासा चिन्ता - दाह में जल रहा था , इधर घर में सासजी और दोनों सालों में बातें हो रही थी । गुमानी भी हां में हां मिलाती जाती थी । बड़े साले ने कहा , ' हम लोगों की बराबरी करते है । यह नहीं समझते कि किसी ने उनकी जिन्दगी - भर का बीड़ा थोड़े ही लिया है । दस साल हो गये । इतने दिनों में क्या दो - तीन हजार न हड़प गये होंगे ? ' छोटे साले बोले , ' मजूर हो , तो आदमी घुड़के भी , डांटे भी , अब इनसे कोई क्या कहे । न जाने इनसे कभी पिण्ड छूटेगा भी या नहीं ? अपने दिल में समझते होंगे , मैंने दो हज़ार रुपये नहीं दिये हैं ? यह नहीं समझते कि उनके दो हज़ार कब के उड़ चुके । सवा सेर तो एक जून को चाहिए । ' सास ने गम्भीर भाव से कहा , ' बड़ी भारी खोराक है । ' गुमानी माता के सिर से जूं निकाल रही थी । सुलगते हुए हृदय से बोली , ' निकम्मे आदमी को खाने के सिवा और काम ही क्या रहता है । ' बड़े , ' खाने की कोई बात नहीं है । जिसको जितनी भूख हो उतना खाये , लेकिन कुछ पैदा करना चाहिए । यह नहीं समझते कि पहुनई में किसी के दिन कटे हैं । ' छोटे , ' मैं तो एक दिन कह दूंगा , अब आप अपनी राह लीजिये , आपका क़र्जा नहीं खाया है । ' गुमानी घरवालों की ऐसी - ऐसी बातें सुनकर अपने पति से द्वेष करने लगी थी । अगर वह बाहर से चार पैसे लाता , तो इस घर में उसका कितना मान - सम्मान होता , वह भी रानी बनकर रहती । न जाने क्यों कहीं बाहर जाकर कमाते उनकी नानी मरती है । गुमानी की मनोवृत्तियाँ अभी तक बिल्कुल बालपन की - सी थीं । उसका अपना कोई घर न था । उसी घर का हित - अहित उसके लिये भी प्रधान था । वह भी उन्हीं शब्दों में विचार करती , इस समस्या को उन्हीं आंखों से देखती , जैसे उसके घर वाले देखते थे । सच तो है , दो हज़ार रुपये में क्या किसी को मोल ले लेंगे ? दस साल में दो हजार रुपये होते ही क्या है ? दो सौ ही तो साल - भर के हुए । क्या दो आदमी साल - भर में दो सौ भी न खायेंगे ? फिर कपड़े - लत्ते , दूध - घी सभी कुछ तो है । दस साल हो गये , एक पीतल का छल्ला नहीं बना । घर से निकलते तो जैसे इनके प्राण निकलते हैं । जानते हैं , जैसे पहले पूजा होती थी , वैसे ही जन्म - भर होती रहेगी । यह नहीं सोचते कि पहले और बात थी , अब और बात है । बहू भी पहले ससुराल जाती है , तो उसका कितना महातम होता है । उसके डोली से उतरते ही बाजे बजते हैं , गांव - मुहल्ले की औरतें उसका मुंह देखने आती हैं और रुपये देती हैं । महीनों उसे घर - भर से अच्छा खाने को मिलता है , अच्छा पहने को , कोई काम नहीं लिया जाता , लेकिन छ : महीने बाद कोई उसकी बात भी नहीं पूछता , वह घर - भर की लौड़ी हो जाती है । उनके घर में मेरी तो वही गति होती । फिर काहे का रोना । जो यह कहो कि मैं तो काम करता हूं , तो तुम्हारी भूल है , मजूर की और बात है । उसे आदमी डांटता भी है , मारता भी है , जब चाहता है रखता है , जब भी चाहता है निकाल देता है । कसकर काम लेता है । यह नहीं कि जब जी में आया , कुछ काम किया , जब जी में आया , पड़कर सो रहे । हरिधन भी पड़ा अन्दर - ही - अन्दर सुलग रहा था कि दोनों साले बाहर आये और बड़े साहब बोले , ' भैया ! उठो तीसरा पहर ढल गया , कब तक सोते रहोगे ? सारा खेत पड़ा हुआ है । हरिधन चट उठ बैठा और तीव्र स्वर में बोला , ' क्या तुम लोगों ने मुझे उल्लू समझ लिया है ? ' दोनों साले हक्का - बक्का हो गये । जिस आदमी ने कभी ज़बान नहीं खोली , हमेशा गुलामों की तरह हाथ बांधे हाज़िर रहा , वह आज एकायेक इतना आत्माभिमानी हो गया , यह उनको चौंका देने के लिये काफ़ी था । कुछ जवाब न सूझा । हरिधन ने देखा , इन दोनों के कदम उखड़ गये है , तो एक धक्का और देने की प्रबल इच्छा को न रोक सका । उसी ढंग से बोला , ' मेरी भी आंखें है , अन्धा नहीं हूं , न बहरा ही हूं । छाती फाड़कर काम करूं और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊं , ऐसे गधे कहीं और होंगे । अब बड़े साले भी गरम पड़े , ' तुम्हें किसी ने यहां बांध तो नहीं रखा है । ' अबकी हरिधन लाजवाब हुआ । कोई बात न सूझी । बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा , ' अगर तुम यह चाहो कि जन्म - भर पाहुंने बने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर - सत्कार होता रहे , तो यह हमारे बस की बात नहीं हरिधन ने आंखे निकालकर कहा , ' क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूं ? " बड़े , ' यह कौन कहता है ? ' हरिधन , ' तो तुम्हारे घर की यही नीति है कि जो सबसे ज्यादा काम करे , वही भूखों मारा जाये ? बड़े , ' तुम खुद खाने नहीं गये । क्या कोई तुम्हारे मुंह में कौर डाल देता ? हरिधन ने होठ चबाकर कहा , ' मैं खुद खाने नहीं गया । कहते तुम्हें लाज नहीं आती । ' ' नहीं आयी थी , बहन तुम्हें बुलाने ? ' हरिधन की आंखों में खून उतर आया , दांत पीसकर रह गया । छोटे साले ने कहा , ' अम्मा भी आयी थी । तुमने कर दिया , मुझे भूख नहीं है , तो क्या करती । सास भीतर से लपकी चली आ रही थी । यह बात सुनकर बोली , ' कितना कहकर हार गयी , कोई उठे न , तो मैं क्या करूं । ' हरिधन ने विष , खून और आग से भरे हुए स्वर में कहा , ' मैं तुम्हारे लड़कों का जूठा खाने के लिये हूं ? मैं कुत्ता हूं कि तुम लोग खाकर मेरे सामने रूखी रोटी का टुकड़ा फेक दो ? ' बुढ़िया ने ऐठकर कहा , ' तो क्या तुम लड़कों की बराबरी करोगे ? ' हरिधन परास्त हो गया । बुढ़िया के एक ही वाक्यहार में उसका काम तमाम कर दिया । उसकी तनी हुई भवे ढीली पड़ गयी , आंखों की आग बुझ गयी , फड़कते हुए नधुने शान्त हो गये । किसी आहत मनुष्य की भांति वह जमीन पर गिर पड़ा । ' क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे ? ' यह वाक्य एक लम्बे भाले की तरह उसके हृदय में चुभता चला जाता था , ' न हृदय का अन्त था , न उस भाले का ! सारे घर ने खाया , पर हरिधन न उठा । सास ने मनाया , सालियों ने मनाया , ससुर ने मनाया , दोनों साले मनाकर हार गये , हरिधन न उठा । वहां द्वार पर एक टाट पड़ा था , उसे उठाकर सबसे अलग कुएं पर ले गया और जगत पर बिछाकर पड़ा रहा । रात भीग चुकी थी । अनन्त आकाश में उज्ज्वल तारे बालकों की भांति क्रीड़ा कर रहे थे । कोई नाचता था , कोई उछलता था , कोई हंसता था , कोई आंखे मींचकर फिर खोल देता था ।
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रह - रहकर कोई साहसी बालक सपाटा भरकर एक पल में उस विस्तृत क्षेत्र को पार कर लेता था और न जाने कहां छा जाता था । हरिधन को अपना बचपन याद आया , जब वह भी इसी तरह क्रीड़ा करता था । उसकी बाल - स्मृतियां उन्हीं चमकीले तारों की भांति प्रज्वलित हो गयी । वह अपना छोटा - सा घर , वह आम का बाग , जहां वह केरियां चुना करता था , वह मैदान , जहां वह कबढी खेला करता था , सब उसको याद आने लगे । फिर अपनी स्नेहमयी माता की सदय मूर्ति उसके सामने खड़ी हो गयी । उन आंखों में कितनी करुणा थी , कितनी दया थी । उसे ऐसा जान पड़ा , मानो माता आंखों में आंसू भरे , उसे छाती से लगा लेने के लिये हाथ फैलाये उसकी ओर चली आ रही है । वह उस मधुर भावना में अपने को भूल गया । ऐसा जान पड़ा , मानो माता ने उसे छाती से लगा लिया है और उसके सिर पर हाथ फेर रही है । वह रोने लगा , फूट - फूटकर रोने लगा । उसी आत्म - सम्मोहित दशा में उसके मुंह से यह शब्द निकले - अम्मा ! तुमने मुझे इतना भुला दिया । देखो , तुम्हारे प्यारे लाल की क्या दशा हो रही है ? कोई उसे पानी को भी नहीं पूछता । क्या जहां तुम हो , वहाँ मेरे लिये जगह नहीं है ? सहसा गुमानी ने आकर पुकारा , ' क्या सो गये तुम ? ऐसी भी क्या राक्षसी नींद , चलकर खा क्यों नहीं लेते ? कब तक कोई तुम्हारे लिये बैठा रहे । हरिधन उस कल्पना - जगत् से क्रूर प्रत्यक्ष में आ गया । वहीं कुएं की जगत थी , वही फटा हुआ टाट और गुमानी सामने खड़ी कर रही थी , ' कब तक कोई तुम्हारे लिये बैठा रहे । हरिधन उठ बैठा और मानो तलवार म्यान से निकालकर बोला , ' भला , तुम्हे मेरी सुध तो आयी । मैंने तो कर दिया था , मुझे भूख नहीं है । ' गुमानी , ' तो कितने दिन तक न खाओगे ? ' ' अब इस घर का पानी भी न पीऊंगा । तुझे मेरे साथ चलना है या नहीं ? ' दृढ़ संकल्प से भरे हुए इन शब्दों को सुनकर गुमानी सहम उठी । बोली , ' कहां जा रहे हो ? ' हरिघन ने मानो नशे में कहा , ' तुझे इससे क्या मतलब ? मेरे साथ चलेगी या नहीं ? फिर पीछे से न कहना , मुझसे कहा नहीं । ' गुमानी आपत्ति के भाव से बोली , ' तुम बताते क्यों नहीं , कहां जा रहे हो ? ' ' तू मेरे साथ चलेगी या नहीं ? ' ' जब तक तुम बता न दोगे , मैं न जाऊंगी । ' ' तो मालूम हो गया , तू नहीं जाना चाहती । मुझे इतना ही पूछना था , नहीं तो अब तक मैं आधी दूर निकल गया होता । ' यह कहकर उठा और अपने घर की ओर चला । गुमानी पुकारती रही , ' सुन लो , सुन लो । ' पर उसने फिरकर भी न देखा । तीस मील की मंज़िल हरिधन ने पांच घण्टो में तय की । जब वह अपने गांव की अमराइयों के सामने पहुंचा , तो उसकी मातृ - भावना उषा की सुनहरी गोद में खेल रही थी । उन वृक्षों को देखकर उसका विरुल हृदय नाचने लगा । मन्दिर का सुनहरा कलश देखकर वह इस तरह दौड़ा जा रहा था , मानो उसकी माता गोद फैलाये उसे बुला रही हो । जब वह आमों के बाग में पहुंचा , जहां डालियों पर बैठकर वह हाथी की सवारी का आनन्द पाता था , जहां के कच्चे बेरों और लिसोड़ों में एक सर्गीय स्वाद था , तो वह बैठ गया और भूमि पर सिर झुकाकर रोने लगा , मानो अपनी माता को अपनी विपत्ति - कथा सुना रहा हो । वहां की वायु में , वहां के प्रकाश में , मानो उसकी विराट् - रूपिणी माता व्याप्त हो रही थी ।
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वहां की अंगुल - अंगुल भूमि माता के पद - चिह्नों से पवित्र थी , माता के स्नेह में डूबे हुए शब्द अभी तक , मानो आकाश में गूंज रहे थे । इस वायु और इस आकाश में न जाने कौन - सी संजीयनी थी , जिसने उसके शोकात हृदय को फिर बालोत्साह से भर दिया । वह एक पेड़ पर चढ़ गया और उधर से आम तोड़ - तोड़कर खाने लगा । सास के वह कठोर शब्द , स्त्री का वह निष्ठुर आघात , वह सारा अपमान उसे भूल गया । उसके पांव फूल गये थे , तलवों में जलन हो रही थी , पर इस आनन्द में उसे किसी बात का ध्यान न था । प्रेसर की । अनमोल कातियासहसा रखवाले ने पुकारा , ' वह कौन ऊपर चढ़ा है , रे ? उतर अभी , नहीं तो ऐसा पत्थर खींचकर मारूंगा कि वही ठण्डे हो जाओगे । ' उसने कई गालियां भी दीं । इस फटकार और इन गालियों में इस समय हरियन को अलौकिक आनन्द मिल रहा था । वह डालियों में छिप गया , कई आम काट - काट नीचे गिराये , और ज़ोर से ठट्टा मारकर हंसा । ऐसी उल्लास से भरी हंसी उसने बहुत दिन से न हंसी थी । रखबाले को यह हंसी परिचित मालूम हुई । मगर हरिधन यहां कहां ? वह ससुराल की रोटियां तोड़ रहा है । कैसा हंसोढ़ा था , कितना चिबिल्ला । न जाने बेचारे का क्या हाल हुआ ? पेड़ की डाल से तालाब में कूद पड़ता था । अब गांव में ऐसा कौन है ? डांटकर बोला , ' वहां से बैठे - बैठे हंसोगे , तो आकर सारी हंसी निकाल दूंगा , नहीं तो सीधे उतर आओ । ' वह गालियां देते जा रहा था कि एक गुठली आकर उसके सिर पर लगी । सिर सहलाता हुआ बोला , ' यह कौन शैतान है , नहीं मानता । ठहर तो , मैं आकर तेरी ख़बर लेता हूं । ' उसने अपनी लकड़ी नीचे रख दी और बंदरों की तरह चट - पट ऊपर चढ़ गया । देखा , तो हरिधन बैठा मुसकरा रहा है । चकित होकर बोला , ' अरे , हरिधन ! तुम यहां कब आये ? इस पेड़ पर कब से बैठे हो ? दोनों बचपन के सखा वहीं गले मिले । ' यहां कब आये ? चलो , घर चलो । भले आदमी , क्या वहां आम भी मयस्सर होते थे ? ' हरिधन ने मुसकराकर कहा , ' मंगरू ! इन आमों में जो स्वाद है , वह और कहीं के आमों में नहीं है । गांव का क्या रंग - ढंग है ? मंगरू , ' सब चैनचान है , भैया ! तुमने तो जैसे नाता ही तोड़ लिया । इस तरह कोई अपना गांव - घर छोड़ देता है ? जब से तुम्हारे दादा मरे , सारी गिरस्ती चौपट हो गयी । दो छोटे - छोटे लड़के हैं । उनके किये क्या होता है ? ' हरिघन , ' अब उस गिरस्ती से क्या वास्ता है भाई ? मैं तो अपना ले दे चुका । मजूरी तो मिलेगी न ? तुम्हारी गैया ही चरा दिया करूंगा , मुझे खाने को दे देना । ' मंगरू ने अविश्वास के भाव से कहा , ' अरे भैया ! कैसी बातें करते हो , तुम्हारे लिये जान हाजिर है । क्या ससुराल में अब न रहोगे ? कोई चिन्ता नहीं । पहले तो तुम्हारा घर ही है , उसे संभालो । छोटे - छोटे बच्चे हैं , उनको पालो । तुम नयी अम्मा से नाहक डरते थे । बड़ी सीधी है बेचारी । बस , अपनी मां समझो । तुम्हें पाकर तो निहाल हो जायेगी । अच्छा , घरवाली को भी तो लाओगे ? ' हरिधन , ' उसका अब मुंह न देखूगा । मेरे लिये वह मर गयी । ' मंगरू , ' तो दूसरी सगाई हो जायेगी । अबकी ऐसी मेहरिया ला दूंगा कि उसके पैर घो - यो पियोगे , लेकिन कहीं पहली भी आ गयी , तो ? ' हरिधन , ' यह न आयेगी ।हरिधन अपने घर पहुंचा , तो दोनों भाई , भैया आये । भैया आये । ' कहकर भीतर दौड़े और मां को खबर दी । उस पर में क़दम रखते ही हरिधन को ऐसी शान्त महिमा का अनुभव हुआ , मानो वह अपनी मां की गोद में बैठा हुआ है । इतने दिनों ठोकरे खाने में उसका हृदय कोमल हो गया था । जहां पहले अभिमान था , आग्रह था , हेकड़ी थी , वहां अब निराशा थी , पराजय और याचना थी । बीमारी का ज़ोर कम हो चला था , अब उस पर मामूली दवा भी असर कर सकती थी । किले की दीवारे छिद चुकी थीं । अब उसमें घुस जाना असाध्य न था । वहीं घर जिससे वह एक दिन विरक्त हो गया था , अब गोद फैलाये उसे आश्रय देने को तैयार था । हरिवन का निरवलम्ब मन यह आश्रय पाकर , मानो तृप्त हो गया । शाम को विमाता ने कहा , ' बेटा ! तुम घर आ गये , हमारे धन्य भाग । अब इन बच्चों को पालो ।
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मां का नाता न
सही , बाप का नाता तो है ही । मुझे एक रोटी दे देना , खाकर एक कोने में पड़ी रहूंगी
। तुम्हारी अम्माँ से मेरी बहन का नाता है । उस नाते से तुम लड़के होते हो । ' हरिधन
ने मातृ - विहल आंखों से विमाता के रूप में अपनी माता के दर्शन किये । घर के एक - एक
कोने में मातृ - स्मृतियों की छटा चांदनी की भांति छिटकी हुई थी , विमाता का प्रौढ़
मुखमण्डल भी उसी छटा से रज्जित था । दूसरे दिन हरिधन फिर कन्धे पर हल रखकर खेत को चला
। उसके मुख पर उल्लास था और आंखों में गर्व । वह अब किसी का आश्रित नहीं , आश्रयदाता
था , किसी के द्वार का भिक्षुक नहीं , घर का रक्षक था । एक दिन उसने सुना , गुमानी
ने दूसरा घर कर लिया । मां से बोला , ' तुमने सुना , काकी ! गुमानी ने घर कर लिया ।
' काकी ने कहा , ' घर क्या कर लेगी , ठट्ठा है ! बिरादरी में ऐसा अन्धेर ? पंचायत नहीं
, अदालत तो है ? " हरिधन ने कहा , ' नहीं , काकी । बहुत अच्छा हुआ । ला , महावीरजी
को लड्डू चढ़ा आऊ । मैं तो डर रहा था , कहीं मेरे गले न आ पड़े । भगवान् ने मेरी सुन
ली । मैं वहां से यही ठानकर चला था , अब उसका मुंह न देखूगा ।
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